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अ॒यं च॒क्रमि॑षण॒त्सूर्य॑स्य॒ न्येत॑शं रीरमत्ससृमा॒णम्। आ कृ॒ष्ण ईं॑ जुहुरा॒णो जि॑घर्ति त्व॒चो बु॒घ्ने रज॑सो अ॒स्य योनौ॑ ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ cakram iṣaṇat sūryasya ny etaśaṁ rīramat sasṛmāṇam | ā kṛṣṇa īṁ juhurāṇo jigharti tvaco budhne rajaso asya yonau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। च॒क्रम्। इ॒ष॒ण॒त्। सूर्य॑स्य। नि। एतश॑म्। री॒र॒म॒त्। स॒सृ॒मा॒णम्। आ। कृ॒ष्णः। ई॒म्। जु॒हु॒रा॒णः। जि॒घ॒र्ति॒। त्व॒चः। बु॒ध्ने॑। रज॑सः। अ॒स्य। योनौ॑ ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:17» मन्त्र:14 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा को वेगवान् यन्त्रों को बनाय दुष्टसंशोधन करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! आप जैसे (अयम्) यह (सूर्यस्य) सूर्य के मण्डल के सदृश (चक्रम्) चक्र को (इषणत्) प्राप्त होता है (ससृमाणम्) निरन्तर प्राप्त होते हुए (एतशम्) घोड़े को (नि, रीरमत्) रमाता है (कृष्णः) खीचनेवाला (जुहुराणः) कुटिल गमनवाले के सदृश (ईम्) जल को (आ, जिघर्ति) नष्ट करता है (त्वचः) वाणी के संबन्ध में (रजसः) लोकसमूह और (अस्य) इसके (बुध्ने) अन्तरिक्ष और (योनौ) गृह में रमता है, ऐसा जानकर इसका सत्कार करके दुष्ट पुरुष को ताड़न दीजिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य कलाकौशल से चक्रयन्त्रों का निर्म्माण करके वेगयुक्त वाहनों को प्राप्त होकर रमण करते हैं, वे ऐश्वर्य को प्राप्त होकर और कुटिलता को त्याग करके सुख को प्राप्त होते हैं ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राज्ञा वेगवन्ति यन्त्राणि निर्माय दुष्टसंशोधनं कार्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! भवान् यथाऽयं सूर्यस्य मण्डलमिव चक्रमिषणत् ससृमाणमेतशं नि रीरमत् कृष्णो जुहुराण इवेमाजिघर्त्ति त्वचो रजसोऽस्य बुध्ने योनौ रमत इति विज्ञायेमं सत्कृत्य दुष्टं ताडय ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (चक्रम्) (इषणत्) इष्णाति प्राप्नोति (सूर्यस्य) (नि) (एतशम्) अश्वम् (रीरमत्) रमयति (ससृमाणम्) भृशं गच्छन्तम् (आ) (कृष्णः) कर्षकः (ईम्) जलम् (जुहुराणः) कुटिलगतिः (जिघर्त्ति) क्षरति (त्वचः) वाचः (बुध्ने) अन्तरिक्षे (रजसः) लोकसमूहस्य (अस्य) (योनौ) गृहे ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः कलाकौशलेन चक्रयन्त्राणि निर्माय वेगवन्ति यानान्यासाद्य रमन्ते ते ऐश्वर्यं प्राप्य कुटिलतां विहाय सुखयन्ति ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे कला-कौशल्याने चक्रयंत्र निर्माण करून वेगवान याने प्राप्त करून त्यात रमतात तो ऐश्वर्यवान बनून कुटिलतेचा त्याग करून सुख प्राप्त करतात. ॥ १४ ॥